नमस्कार दोस्तों Major Target में आपका स्वागत हैं आज हम राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत ( history of rajasthan ) के बारे में जानकारी हासिल करेंगे। इस post में Step by Step राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्त्रोत ( Rajasthan Itihas ke Pramukh Srot ) के बारे में महत्वपूर्ण Notes आसान शब्दों में दिए गए हैं।
राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत
1. राजपूताना शब्द :
राजस्थान के लिए सर्वप्रथम राजपूतायहना शब्द का प्रयोग जॉर्ज थॉमस ने 1800 ईस्वी में किया था। जॉर्ज थॉमस सर्वप्रथम 1758 ई. में राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश में आया तथा इसकी मृत्यु बीकानेर में हुई थी।
राजपूताना शब्द का हमें सर्वप्रथम लिखित प्रमाण 1805 ईस्वी में विलियम फ्रैंकलिन की पुस्तक ‘मिलिट्री मेमोयार्स आॅफ जॉर्ज थॉमस’ में मिलता है।
राजस्थान प्रदेश को अंग्रेजों के शासन काल व मध्यकाल में ‘राजपूताना’ के नाम से जाना जाता था।
2. राजस्थान शब्द :
राजस्थान शब्द का सबसे प्राचीनतम लिखित प्रमाण बसंतगढ़ (सिरोही) में स्थित सीमल माता/खीमल माता के मंदिर में उत्कीर्ण विक्रम संवत 682 के शिलालेख में मिलता है। जिसमें राजस्थानीयादित्य शब्द उत्कीर्ण है।
राजस्थान शब्द प्रयोग ‘मुहणोत नैणसी री ख्यात’ में मिलता है। इसी ग्रंथ को ‘राजस्थान का प्रथम ऐतिहासिक ग्रंथ’ मानते हैं।
राजपूताना भू-भाग के लिए सर्वप्रथम ‘राजस्थान’ शब्द का प्रयोग 1829 ई. में कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ ने किया है। कर्नल जेम्स टॉड को ‘राजस्थान के इतिहास का जनक’ कहते हैं क्योंकि इसी ने सर्वप्रथम राजस्थान के इतिहास को विस्तृत रूप में लिखा था।
आजादी के उपरांत पी. सत्यनारायण राव कमेटी की सिफारिश से संवैधानिक तौर पर राजस्थान शब्द को 26 जनवरी, 1950 को मान्यता मिली।
राजस्थान के महत्वपूर्ण शिलालेख एवं प्रशस्तियाँ
भारत में सबसे प्राचीन शिलालेख सम्राट ‘अशोक महान’ बनवाए।
भारत में संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख शक शासक रुद्रदामन का ‘जूनागढ़ अभिलेख’ है।राजस्थान के शिलालेखों की भाषा संस्कृत एवं राजस्थानी है।
1. घोसुंडी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)
- चित्तौड़गढ़ जिले के नगरी के निकट घोसुंडी गांव में प्राप्त हुआ है।
- इनमें से एक बड़ा शिलाखंड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। इस शिलालेख पर संस्कृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग है। इस शिलालेख में दितीय शताब्दी ईसा पूर्व के गजवंश के पाराशरी के पुत्र सर्वतात द्वारा यहाँ अश्वमेध यज्ञ करने एवं चारदीवारी बनाने का उल्लेख है।
- यह राजस्थान में वैष्णव संप्रदाय का सबसे प्राचीन अभिलेख है।
2. किराडू का शिलालेख (1161ई.)
- किराडू बाड़मेर के शिव मंदिर में संस्कृत में 1161 ई. का उत्कीर्ण लेख है जिसमें वहां के परमार शाखा का वंशक्रम दिया है।
- इसमें परमारो की उत्पत्ति ऋषि वशिष्ठ के आबू यज्ञ से बताई गई है।
3. बिजोलिया लेख (1170 ई.)
- यह शिलालेख भीलवाड़ा जिले के बिजोलिया गांव के पार्श्वनाथ मंदिर में लगा है यह मूलतः दिगंबर लेख है जिसको दिगंबर जैन श्रावक लोलाक ने पार्श्वनाथ के मंदिर और कुंड के निर्माण की स्मृति में लगाया था।
- इस लेख में सांभर और अजमेर के चौहान वंश के बारे में जानकारी मिलती है। इस लेख के अनुसार चौहानों की उत्पत्ति वत्सगौत्रीय ब्राह्मण से हुई है।
- इस लेख के रचयिता गुणभद्र तथा लेखक कायस्थ केशव थे।
- इस शिलालेख को नानिंग के पुत्र गोविंद ने उत्कीर्ण किया।
4. जैन कीर्ति स्तंभ के लेख
- चित्तौड़ के जैन कीर्ति स्तंभ में उत्कीर्ण तीन अभिलेखों क स्थापनकर्ता जीजा था।
- इसमें जीता के वंश, मंदिर निर्माण एवं दोनों का वर्णन मिलता हैं। ये 13वीं सदी के है।
5. मानमोरी शिलालेख (713 ई.)
- यह शिलालेख चित्तौड़गढ़ के समीप पूठोली गांव में मानसरोवर झील के तट पर मिला। इस शिलालेख का लेखक पुष्य तथा उत्कीर्णक शिवादित्य था।
- इस शिलालेख की प्रतिलिपि कर्नल जेम्स टॉड ने अपने ग्रंथ ‘एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ के प्रथम भाग में प्रकाशित की है। इस शिलालेख में अमृत मंथन का उल्लेख मिलता है।
6. हर्षनाथ प्रशस्ति
- हर्षनाथ (सीकर) के मंदिर की यह प्रशस्ति 973 ई. की है।
- इसमें मंदिर का निर्माण अल्लट द्वारा किए जाने का उल्लेख है। इसमें चौहानों के वंशक्रम का उल्लेख है।
7. आर्थूणा के शिव मंदिर की प्रशस्ति
- आर्थूणा (बांसवाड़ा) के शिव मंदिर में उत्कीर्ण 1079 ई. के इस अभिलेख में वागड़ के परमार नरेशों का अच्छा वर्णन है।
8. नाथ प्रशस्ति
- 971 ई. का यह लेख एकलिंगजी के मंदिर के पास लकुलीश मंदिर से प्राप्त हुआ है। इसमें नागदा नगर एवं बापा, गुहिल तथा नरवाहन राजाओं का वर्णन है।
9. सच्चिया माता मंदिर की प्रशस्ति
- ओसियां (जोधपुर) में सच्चिया माता के मंदिर में उत्कीर्ण इस लेख में कल्हण एवं कीर्तिपाल का उल्लेख है।
10. लूणवसही व नेमिनाथ मंदिर की प्रशस्ति
- माउंट आबू के इन प्रसिद्ध जैन मंदिरों में इनके निर्माता वस्तुपाल, तेजपाल तथा आबू के परमार वंशीय शासकों की वंशावली दी हुई है।
- यह प्रशस्ति उस समय के जनसमुदाय की विद्यानिष्ठा, दान-परायणता एवं धर्मनिष्ठा की भावना का अच्छा वर्णन करती है।
11. चीरवा का शिलालेख
- चीरवा (उदयपुर) के एक मंदिर के बाहरी द्वार पर उत्कीर्ण 1273 ई. का यह शिलालेख बापा रावल के वंशजों की कीर्ति का वर्णन करता है।
12. रणकपूर प्रशस्ति
- रणकपुर के चौमुखा मंदिर के स्तंभ पर उत्कीर्ण यह प्रशस्ति 1439 ईस्वी की है।
- इसमें मेवाड़ के राजवंश, धरणक सेठ के वंश एवं उसके शिल्पी का परिचय दिया गया है।
- इसमें बापा एवं कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है।
- इसमें महाराणा कुंभा की विजयों एवं विरुदो का पूरा वर्णन है।
13. कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति
- यह विजय स्तंभ में संस्कृत भाषा में कई शिलाओं पर कुंभा के समय (दिसंबर, 1460 ई.) में उत्कीर्ण की गई है।
- अब केवल दो ही शिलाएं उपलब्ध है।
- इस प्रशस्ति में बापा से लेकर कुंभा तक की विस्तृत वंशावली एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन है इस प्रशस्ति के रचयिता महेश भट्ट है।
14. कुंभलगढ़ का शिलालेख (1460 ई.)
- यह 5 शिलाओं पर उत्कीर्ण था जो कुंभश्याम मंदिर (कुंभलगढ़), जिसे अब मामदेव मंदिर कहते हैं, में लगाई हुई थी।
- इसके राज वर्णन में गुहिल वंश का विवरण एवं शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
- इसमें बापा रावल को विप्र वंशीय बताया गया है इस प्रशस्ति के रचयिता कवि महेश है।
15. एकलिंगजी के मंदिर की दक्षिण द्वार की प्रशस्ति
- यह महाराणा रायमल द्वारा मंदिर के जीर्णोद्धार के समय (मार्च, 1488 ई.) उत्कीर्ण की गई है।
- इसमें मेवाड़ के शासकों की वंशावली, तत्कालीन समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक स्थिति व नैतिक स्तर की जानकारी दी गई है।
- इसके रचयिता महेश भट्ट है।
16. रायसिंह प्रशस्ति (जूनागढ़ प्रशस्ति)
- बीकानेर के नरेश रायसिंह द्वारा जूनागढ़ दुर्ग में स्थापित की गई प्रशस्ति जिसमें दुर्ग के निर्माण की तिथि तथा राव बीका से लेकर राव रायसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है।
- इसके रचयिता जइता नामक जैन मुनि थे।
- यह संस्कृत भाषा में उल्लेखित है।
17. जगन्नाथ राय प्रशस्ति
- यह उदयपुर के जगन्नाथ राय मंदिर में काले पत्थर पर मई, 1652 ई. में उत्कीर्ण की गई थी।
- इसमें बापा से लेकर सांगा तक की उपलब्धियों, हल्दीघाटी युद्ध, कर्ण के समय सिरोंज के विनाश के वर्णन के अलावा महाराणा जगतसिंह की युद्धों एवं पुण्य कार्यों का विस्तृत विवरण है।
- प्रशस्ति के रचयिता कृष्णभट्ट है।
पिछोला झील (उदयपुर) के निकट सीसारमा गांव के वैद्यनाथ मंदिर में स्थित महाराणा संग्रामसिंह-द्वितीय कि यह प्रशस्ति 1719 ईस्वी की है। इसमें बापा के हारित ऋषि की कृपा से राज्य प्राप्ति का उल्लेख है तथा बापा से लेकर संग्रामसिंह-द्वितीय जिसने यह मंदिर बनवाया था, तक का संक्षिप्त परिचय है।
विभिन्न रियासतों में प्रचलित सिक्के
विजयशाही, भीमशाही | जोधपुर |
गजशाही | बीकानेर |
उदयशाही | डूंगरपुर |
स्वरूपशाही, चाँदोड़ी | मेवाड़ |
रावशाही | अलवर |
अखैशाही | जैसलमेर |
गुमानशाही | कोटा |
झाड़शाही | जयपुर |
मदनशाही | झालावाड़ |
तमंचाशाही | धौलपुर |
रामशाही | बूंदी |
पदमशाही | मेवाड़ |
माधोशाही | शाहपुरा रियासत |
ढब्बूशाही | सिरोही |
कटार झाड़शाही, माणक शाही | करौली |
ऐतिहासिक साहित्य
1. पृथ्वीराज विजय
- पृथ्वीराज चौहान तृतीय के आश्रित कवि पंडित जयानक ने 12 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस ग्रंथ की रचना की।
- इस ग्रंथ में अजमेर साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ पृथ्वीराज चौहान तृतीय की सन् 1190 ई. तक कि विजयों का उल्लेख मिलता है।
- तराइन के युद्धों का वर्णन इसमें नहीं मिलता है।
2. हमीर महाकाव्य
- इसके रचयिता ‘नयनचंद्र सूरि’ थे।
- इस महाकाव्य के अनुसार चौहान राजपूतों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है अतः इन्हें ‘सूर्यवंशी’ कहा जाता है।
- यह एक उच्च कोटि का ‘राष्ट्रकाव्य’ है।
- इसमें रणथम्भौर के चौहान वंश के इतिहास, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा रणथम्भौर पर किए गए आक्रमण एवं हम्मीर देव के शौर्य, हठ, अतिथि सत्कार, धर्म परायणता का विशेष वर्णन मिलता है।
3. एकलिंग महात्म्य
- महाराणा कुंभा ने इस ग्रंथ को लिखने की शुरुआत की, कुंभा ने इसके प्रथम भाग को पूर्ण रूप से लिखा।
- इसका प्रथम भाग ‘राजवर्णन’ कहलाता है।
- इस ग्रंथ का अंत महाराणा कुंभा के कवि कान्ह व्यास ने किया।
- इस ग्रंथ में गहलोत वंश की वंशावली, वर्णाश्रम और वर्ण व्यवस्था की जानकारी मिलती है।
- मध्यकाल में मेवाड़ को मेदपाठ व हाडौ़ती को हाडा़वती कहते थे।
4. अमरकाव्य वंशावली
- इस ग्रंथ के रचनाकार ‘राज प्रशस्ति’ के लेखक ‘रणछोड़’ भट्ट (महाराणा राजसिंह, मेवाड़ के आश्रित कवि) थे।
- इसमें बप्पा से लेकर राणा राजसिंह तक के मेवाड़ के इतिहास, जोहर, दीपावली आदि त्योहारों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
- इस ग्रंथ से हमें यह पता चलता है कि हल्दीघाटी के युद्ध से महाराणा प्रताप घायल अवस्था में बचकर जा रहे थे तो उनके विरोधी भाई शक्ति सिंह ने मुगल सेना को रोका था।
5. प्रबंध चिंतामणि
- रचनाकार – भोज परमार के राज कवि मेरुतंग।
- 13 वीं सदी का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक वर्णन मिलता है।
6. अचलदास खींची री वचनिका
- रचना – 14 वीं शताब्दी में चारण जाति के शिवदास गाड़ण ने गागरोन दुर्ग में की।
- यह ग्रंथ वीर रसात्मक चम्पू ( गद्य-पद्य ) काव्य है।
- यह राजस्थान की सबसे प्राचीन वचनीका है।
- इसमें गागरोन के राजा अचलदास खींची व मालवा के सुल्तान होशंगशाह गौरी के मध्य हुए युद्ध का वर्णन मिलता है।
7. कान्हड़दे प्रबन्ध
- रचना – जालौर के शासक अखैराज के दरबारी कवि ‘पद्मनाभ’ ने विक्रम संवत् 1200 ई. में की।
- इस ग्रंथ में जालौर के शासक कान्हड़दे एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य हुए युद्ध में अलाउद्दीन की जालौर विजेता उल्लेख है।
8. राव जैतसी रो छंद
- रचना – बिठू सूजा ने 1269 ईस्वी में डिंगल भाषा में की।
- इस ग्रंथ में राव चूड़ा से लेकर राव लूणकरण सिंह की ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन है।
9. वेलि क्रिसन रूक्मणी री वचनिका
- इसकी रचना सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने गागरोन दुर्ग में की।
- पृथ्वीराज राठौड़ बीकानेर के शासक कल्याणमल का पुत्र एवं राय सिंह का भाई था।
- इस ग्रंथ में श्री कृष्ण एवं रुक्मणी के विवाह की कथा का वर्णन मिलता है।
- दूरसा हाड़ा ने इस ग्रंथ को पाँचवा वेद या 19 वाँ पुराण की उपमा दी।
- पृथ्वीराज राठौड़ पीथल नाम से साहित्य की रचना करते थे।
- टैस्सीटोरी ने इनको ‘डिंगल का हैरोस’ कहा है।
10. पृथ्वीराज रासो
- पृथ्वीराज चौहान तृतीय के मित्र एवं दरबारी कवि चन्दबरदाई ने पिंगल (ब्रज हिंदी) भाषा में की।
- इस ग्रंथ में 1 लाख छंद एवं 69 अध्याय है।
- इससे यह पता चलता है कि पृथ्वीराज चौहान तृतीय एवं चन्दबरदाई का जन्म एवं मृत्यु एक साथ हुई।
- पृथ्वीराज रासो में गुर्जर प्रतिहार, परमार, चालुक्य/सौलंकी एवं चौहानों की उत्पत्ति गुरु वशिष्ठ के आबू पर्वत के अग्निकुंड से बताई गई है।
- इसमें संयोगिता हरण एवं तराईन युद्ध का विशुद्ध वर्णन किया गया है
- इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान द्वारा गौरी की मृत्यु का वर्णन मिलता है।
‘‘आठ बांस बत्तीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहाण’’
- पृथ्वीराज रासो की समाप्ति चंदबरदाई के दत्तक पुत्र ‘जल्हण’ ने की।
11. मुहणौत नैणसी री ख्यात
- रचनाकार – मोहणौत नैणसी > जन्म 1610 ई. में ओसवाल परिवार में।
- मुंशीदेवी प्रसाद ने इनको राजपूताने का अबुल फजल कहा है।
- मुहणौत नैणसी री ख्यात सबसे प्राचीन एवं विश्वसनीय ख्यात मानी जाती है।
- यह मारवाड़ी एवं डिंगल भाषा में लिखी गई है।
- इसमें राजपूताने के लगभग सभी राज्यों विशेषतः जोधपुर, गुजरात, मालवा व बुंदेलखंड के राजपूतों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
- मुहणौत नैणसी री ख्यात को जोधपुर राज्य का ‘गजेटियर’ ग्रंथ कहा जाता है।
- इस ख्यात को राजस्थान का प्रथम ऐतिहासिक ग्रंथ कहते हैं।
- इसमें राजपूतों की 36 शाखाओं का वर्णन मिलता है।
12. मारवाड़ रा परगना री विगत
- रचनाकार – मुहणौत नैणसी
- इसमें मारवाड़ राज्य का विस्तृत इतिहास लिखा हुआ है।
- यह ख्यात इतनी बड़ी है कि इसे ‘सर्वसंग्रह’ भी कहते हैं।